संपत्ति अंतरण अधिनियम , 1882 की धारा 58 में वर्णित बन्धक (Mortgage)  का अर्थ , परिभाषा , आवश्यक तत्व एवं प्रकार पर विस्तार से चर्चा–

बन्धक का अर्थ –परिभाषा , आवश्यक तत्व एवं प्रकार
बन्धक का अर्थ –परिभाषा , आवश्यक तत्व एवं प्रकार

संपत्ति अंतरण अधिनियम ,1882 का अध्याय 4 बंधक तथा भार के विषय में है । आज इस लेख में हम बात करेंगे सम्पत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 58 में उपबंधित बंधक के विषय में।


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बंधक की परिभाषा एवं अर्थ

सम्पत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 58(क) में बंधक को परिभाषित किया गया है जो कि इस प्रकार है–

“ बंधक किसी विशिष्ट अचल संपत्ति में के किसी हित का वह अंतरण है जो ऋण के तौर पर दिए गए या दिये जाने वाले धन के भुगतान को या वर्तमान या भावी ऋण के भुगतान को या ऐसे वचनबंध का पालन , जिससे धन संबंधी दायित्व पैदा हो सकता है, ऐसे धन को सुरक्षित रखने के आशय से किया गया संपत्ति का अंतरण बंधक कहलाता है "
  इस धारा के अनुसार , अन्तरक को बंधककर्ता और अंतरीति को बन्धकदार कहते हैं , मूलधन और ब्याज जिनके भुगतान के लिए बंधक द्वारा सुरक्षा की व्यवस्था की गई है ,बंधक धन कहलता हैं और वह लिखत जिसके द्वारा अंतरण किया जाता है बंधक विलेख कहलाता हैं ।

सरल शब्दों में बन्धक का अर्थ है ,ऋण या उधार के रूप में प्राप्त धन के लिए अपनी किसी विशिष्ट संपत्ति या उसके किसी भाग में निहित हित का अंतरण , उस व्यक्ति के पक्ष में करना, जिससे ऋण या उधार लिया गया है , जिससे ऋण देने वाले व्यक्ति का धन सुरक्षित हो सके ।

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निधि शाह बनाम मुरलीधर, 1903 इस संबंध में महत्वपूर्ण वाद है, जिसमें प्रिवी कौंसिल के द्वारा कहा गया है कि ,ऋण के भुगतान की गारंटी के लिए ही बंधक में संपत्ति का अंतरण किया जाता है । अतः उधार, ऋण या वचनबंध उपयुक्त तीनों में से किसी की भी वसूली के लिए प्रतिभूति दिया जाना बंधक है ।

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बन्धक के आवश्यक तत्व (Essential Elements)

बन्धक के महत्त्वपूर्ण तत्व निम्नलिखित है–

(1) स्थावर (अचल) संपत्ति में किसी हित का अंतरण

प्रत्येक बन्धक में किसी ना किसी अचल संपत्ति या उसके किसी भाग में निहित हित का अंतरण होना उसकी प्रथम आवश्यक शर्त है । यहां यह स्पष्ट है कि बंधक में संपत्ति में हित का अंतरण होता है स्वामित्व का नहीं । अर्थात हित बन्धकदार के पास चला जाता है जबकि स्वामित्व बंधक कर्ता के पास ही रहता है ।चल संपत्ति इस क्षेत्र से बाहर है । इसी प्रकार बन्धक में कब्जा का अंतरण भी होगा या नहीं , यह बंधक के प्रकार पर निर्भर करता है।

(2)  अचल सम्पत्ति स्पष्ट एवं निश्चित होनी चाहिए

संपत्ति अंतरण अधिनियम में बंधक केवल अचल संपत्ति का ही होता है । अचल संपत्ति की स्थिति , विवरण , प्रकृति इस तरह की होनी चाहिए कि बन्धक विलेख से ही उसे तुरंत पहचाना जा सके , जैसे – मुकुंद भवन मकान नंबर दो , विद्या नगर कोठी नंबर पांच ।

(3)  बन्धक धन (Mortgage money )

बन्धक में ऋण की राशि को बन्धक धन कहा जाता है । यही वह राशि होती है , जिसे उधार लिया जाता है तथा जिसके भुगतान के लिए संपत्ति में हित को प्रतिभूति के रूप में रखा जाता है । किसी भी संविदा के अभाव में , ब्याज बंधक धन में ही शामिल होती है। वसूली के समय ब्याज व मूलधन को अलग नहीं किया जा सकता । किंतु करार द्वारा ऐसा हो भी सकता है।
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(4)  बन्धक विलेख ( Mortgage deed )

यदि बन्धक लिखित प्रपत्र में है और उसमे बंधक से संबंधित समस्त जनकारी स्पष्ट की गई है तो उसे बंधक विलेख कहते है । सम्पति अंतरण अधिनियम की धारा 58(क) के अनुसार   , बंधक केवल अचल सम्पत्ति का ही हो सकता है और यदि  बन्धक की गई सम्पत्ति की कीमत 100 रु या उससे ज्यादा है तो बन्धक विलेख अनिवार्य होता है ।

(5)  दो पक्षों का होना आवश्यक है

बंधक में दो पक्ष होते हैं , बन्धककर्ता तथा बन्धकदार । बन्धककर्ता वह व्यक्ति होता है जो ऋण या उधार लेता है और उसके लिए अपनी संपत्ति में निहित हित को प्रतिभूति के रूप में , उधार या ऋण देने वाले व्यक्ति , जिसे बन्धकदार कहते हैं, रखता है।

बन्धक के प्रकार ( Types of Mortgage )

सम्पत्ति अंतरण अधिनियम , 1882 के अनुसार बन्धक निम्नलिखित छः प्रकार के होते है –

 
  1. सादा बंधक (Simple Mortgage )
  2. सशर्त विक्रय द्वारा बन्धक ( Mortgage by conditional                                             Sale )
  3. भोग बन्धक ( Usufructuary Mortgage )
  4. अंग्रेजी बन्धक ( English Mortgage )
  5. हक–विलेखों को जमा करके बन्धक (Mortagege by            Deposit of Title Deeds )
  6. विलक्षण बन्धक (Anomalous Mortgage )

सादा बन्धक

धारा 58(ख) के अनुसार , सादा बन्धक में बन्धक सम्पत्ति के कब्जे का अंतरण नही किया जाता है । बल्कि बन्धककर्ता कब्जे का अंतरण किये बिना बन्धक धन का भुगतान करने के लिए व्यक्तिगत जिम्मेदारी लेता है और अप्रकट या प्रकट रूप से यह संविदा करता है कि , बन्धककर्ता द्वार बन्धक धन का भुगतान करने में विफल रहने पर, बन्धकदार को यह अधिकार होगा , वह बन्धक सम्पत्ति की बिक्री कराये और ऐसी बिक्री से प्राप्त आगमों का उपयोग बन्धक धन का भुगतान करने मे करे , जहां ऐसा संव्यवहार हो , सादा बन्धक कहलाता है ।

सशर्त विक्रय द्वारा बन्धक

धारा 58(ग) में सशर्त विक्रय द्वारा बन्धक के विषय में बताया गया है । इसमें बन्धककर्ता काल्पनिक रूप से अपनी संपत्ति की बिक्री कर देता है , जिसमें कुछ शर्तें भी होती है । शर्तों के अनुसार , एक निश्चित तारीख तक भुगतान न होने पर विक्रय माना जायेगा और यदि बन्धककर्ता नियत तारीख तक बन्धक धन का संदाय कर देता है , तो बंधकदार सम्पत्ति का अंतरण बन्धककर्ता को कर देगा । परन्तु ऐसा संव्यवहार तभी सशर्त विक्रय द्वारा बन्धक माना जाएगा, जब यह शर्तें बन्धक विलेख में  स्पष्ट अंकित हो । किसी ओर करार या प्रपत्र में ना हो ।

भोग बन्धक

धारा 58(घ) के अनुसार , जहां कि बन्धककर्ता बन्धक सम्पति का कब्जा बन्धकदार को प्रदान कर देता है या ऐसा कब्जा प्रदान करने के लिए स्वंम को प्रकट या अप्रकट रूप से बाध्य कर लेता है और बन्धकदार को यह अधिकार देता है कि , बन्धक धन के भुगतान तक वह सम्पत्ति पर कब्जा प्राप्त करे और सम्पत्ति से प्राप्त किरायों और लाभों या किरायों या लाभों के किसी भाग को प्राप्त करे और उन्हे ब्याज तथा बन्धक धन की अदायगी में विनियोजित करे।
     ऐसा संव्यवहार भोग बन्धक कहलाता है । भोग बंधक में संपत्ति का कब्जा अनिवार्य होता है । भोग बन्धक में जब्ती तथा बिक्री का अधिकार नहीं होता है ।

अंग्रेजी बन्धक

अधिनियम की धारा 58(ड़) मे अंग्रेजी बन्धक को परिभाषित किया गया है । ऐसा समव्यावहार,  जहां बंधककर्ता बंधक धन को एक निश्चित तारीख को भुगतान करने के लिए स्वयं को आबद्ध  करता है और बंधक संपत्ति को बंधकदार को अंतरित कर देता है, किंतु इस शर्त के साथ की बंधक धन के सदांय पर बंधकदार संपत्ति को बंधक कर्ता को वापस कर देगा, अंग्रेजी बंधक कहलाता है ।

हक–विलेखों को जमा करके बन्धक

धारा 58(च) के अनुसार, जहां कोई व्यक्ति निम्नलिखित नगरों अर्थात कोलकाता , मद्रास और मुंबई नगरों में से किसी में या किसी भी अन्य नगर में, जिसे संयुक्त राज्य सरकार द्वारा शासकीय राजपत्र में अधिसूचना द्वारा इस हेतु उल्लेखित किया गया है , किसी लेनदार को या उसके प्रतिनिधि को अचल संपत्ति में हक के दस्तावेजों को , उस अचल संपत्ति पर गारंटी उत्पन्न करने के आशय से प्रदान करता है, वहां ऐसा संव्यवहार हक–विलेखों को जमा करके बन्धक कहलाता है ।

विलक्षण बन्धक

विलक्षण बन्धक को अधिनियम कि धारा 58(छ) में परिभाषित किया गया है । जिसके अनुसार , जो बन्धक सादा बन्धक, सशर्त विक्रय द्वारा बन्धक , भोग बन्धक , अंग्रेजी बन्धक या हक विलेखों को जमा करके बन्धक नहीं है , वह विलक्षण बन्धक कहलाता है । विलक्षण बन्धक को सम्पत्ति अंतरण अधिनियम में सन् 1929 के संशोधन द्वारा जोड़ा गया था । विलक्षण बन्धक में पक्षकारों के अधिकार एवं दायित्व संविदा पर निर्भर करते हैं । यदि बिना कब्जा दिए भोग बंधक किया जाए तथा भोग बंधक में व्यक्तिगत दायित्व लिया जाए,  तो ऐसे बंधक विलक्षण बन्धक ही होंगे ।


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